
चन्द्रिल कुलश्रेष्ठ
ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर,
या वो जगह बता दे जहां पर खुदा न हो।
कुदरत के हर जर्रे में खुदा होता है लेकिन भारत भूमि का एक राज्य है उत्तराखंड, जहां के हर एक कण में ईश्वर का वास है, शायद इसलिए उसे “देवभूमि” कहा जाता है। दुर्भाग्य है कि जैसे हर पर्वत, हर पहाड़, हर चोटी पर वहां देवी देवताओं के स्थान हैं वैसे ही आज के परिदृश्य में उतने ही स्थान शराब के ठेकों के हैं। विंडबना है कि 19 वर्ष पूर्व “देवभूमि” उत्तराखंड की स्थापना शराब से मुक्ति के लिए ही हुई थी और आज आधुनिकता की चादर ओढ़े समाज ने शराब की लत को चरम पर पंहुचा दिया है।
शराब एक ऐसी चीज है जिसकी लत यदि किसी इंसान को लग जाए तो वह उसका पूरा जीवन बर्बाद कर देती है। उत्तराखंड में इस लत के शौक़ीन लगातार बढ़ रहे हैं। लगता है उत्तराखंड की पावन भूमि को शराबियों के लिए छोड़ दिया गया है।
देखा जाए तो शराब व अन्य नशीले पदार्थों में आज की युवा पीढ़ी आधुनिकता देखती है। युवाओं की नजर में नशा न करने वाले लोग पुराने ख्यालात के माने जाते हैं। शराब की लत इस कदर युवाओं पर भारी है कि वे नीच से नीच कर्म करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते। अपनी इज्जत- आबरू तो दूर ये परिवार की इज्जत भी दांव पर लगा देते हैं। घर से पैसे चुरा कर शराब आदि का सेवन करना इसमें ही शामिल है। ऐसा लगने लगा है, आए दिन हो रहीं क्लब पार्टी, बर्थडे पार्टी और हां अब तो शादियों में भी शराब परोसी जा रही है। युवा पीढ़ी पर शराब इस प्रकार हावी हो चुकी है कि वे कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं और आपराधिक घटनाओं तक को अंजाम देने से नहीं चूकते।
शहरों की चकाचौंध, व्यस्त जिंदगी के चलते शराब आदि के सेवन से बच पाना मुश्किल होता जा रहा है। इस सब से प्रदेश के युवाओं को बचाने के लिए यदि सरकार द्वारा कड़े कदम नहीं उठाए गए तो परिणाम भयंकर हो सकते। हैं। हालांकि सरकार ने कदम उठाने शुरू किये हैं। पर राजस्व का मोह सरकार नहीं छोड़ पा रही हैं। इसलिए ये कदम नाकाफी साबित हो रहे हैं।
नशा की बढ़ती प्रवृति नारी शक्ति में भी जबरदस्त देखने को मिल रही है। सरकार नारी शक्ति के उत्थान के लिए तमाम योजनाएं चला रही है लेकिन अफ़सोस ये वर्ग भी नशाखोरी में पीछे नहीं हैं। पर उत्तराखंड में महिला वर्ग ही शराबबंदी के लिए तमाम आंदोलन चला रहा है।
भूलना नहीं चाहिए कि उत्तराखंड राज्य महिलाओं के आंदोलन की ही देन है। यही महिलाएं आज अपने घर-परिवार को शराब से मुक्त करने के लिए आंदोलन चला रही हैं। लेकिन सरकार बार-बार राजस्व का
रोना रो रही है। उसे महिलाओं की पीड़ा नहीं दिखाई देती। शायद यही कारण है कि सरकारें शराब से समाज को होने वाले नुकसानों का आंकड़ा तैयार कराने से भी कतराती हैं।
दरअसल, अब समय आ गया है कि सरकारें राजस्व का रोना रोने के लिए शराब का बहाना न लें, बल्कि राजस्व जुटाने के वैकल्पिक स्रोतों और विकल्पों की तलाश करने पर अपनी ऊर्जा लगाएं, ताकि उनका राजस्व भी बना रहे और आबादी भी इस खतरे से बची रहे। असल में, यह सभी राजनीतिक दलों के सोचने का मामला है। उन्हें अपने निजी व्यावसायिक और आर्थिक हितों से ऊपर उठकर सोचना होगा।
पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण ने शराब सेवन को बहुत ही बढ़ावा दिया है। शराब को पश्चिमी राष्ट्र के लोगों के लिए अनुकूल माना गया है, क्योंकि वहां सर्दी अधिक पड़ती है। हमारा देश के एक कृषि प्रधान देश और उसमें भी उत्तराखंड तो देवों की भूमि कही जाती है। शराब यहां के लोगों के लिए बस जहर का ही काम करेगी और कुछ नहीं। आए दिन होने वाली घटनाएं इसकी साक्षी हैं। शराब पीकर व्यक्ति का विवेक शून्य हो जाता है और उसका दिमाग फालतू की चीजों में दौड़ने लगता है। इसके फलस्वरूप आपराधिक मामलों में इजाफा हो रहा है।
अतः उत्तराखंड पवित्र नदियों और देवों की भूमि है। उसकी शुचिता के लिए सरकार को ही नहीं प्रत्येक उत्तराखंड वासी को बचाने के प्रयास करने होंगे। शराब के चलन से तभी मुक्ति संभव है।