
‘फूलदेई’ – चला फुलारी फूलों कु, सौदा सौदा फूल बिरोला…
नरेंद्र सिंह नेगी द्वारा लिखा यह गीत बताता हैं उत्तराखंड के प्रसिद्ध त्योहारों में से एक ‘फूलदेई’ की महत्ता और उसकी आज की स्थिति। फूलदेई लोकपर्व इंसान और प्रकृति के बीच सामंजस्य का त्योहार हैं।
जिस प्रकार बैसाख मास का जुड़ाव बैसाखी से माना जाता है, उत्तराखंड में चैत्र मास की संक्रांति को फूलदेई के रूप में बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता है।
फूलदेई –
प्राकृतिक रूप से समृद्ध उत्तराखंड की सांस्कृतिक परम्पराएं प्रकृति से निहित हैं। चैत्र मास की संक्रांति को जब उत्तराखंड के पहाड़ बुरांश के लाल फूलों की चादर ओढ़ने लगते हैं, तब खुशहाली का त्यौहार फूलदेई मनाया जाता है। फूलदेई से एक शाम पहले फ्योंली,बुरांश, कचनार आदि के फूल इक्कट्ठे किये जाते हैं। इन्हें रिंगाल की टोकरियों में पानी छिड़क कर रात भर बाहर रखा जाता हैं। फूल तोड़ने का नियम हैं कि धूप जाने के बाद ही इन्हें तोड़ा जाता हैं। धूप में तोड़े गए फूल देहली में रखने योग्य नहीं माने जाते। इसके बाद महिलाएं और बच्चे मिलकर घोघा देवता की डोली सजाते हैं।
अगले दिन विशेष पर्व की शुरुआत सुबह घोघा देवता की पूजा कर, गावँ के मंदिर में फूल चढ़ाने से होती हैं। इसके बाद रिंगाल में रखे फूल और चावलों को हर घर की देहरी पर रख कर उनकी ख़ुशहाली, समृद्धि की दुआ मांगी जाती है।
यह त्योहार अनेकानेक नामों से प्रसिद्ध है जिसमें से कुछ प्रमुख नाम है पुष्प संक्रांति, फूल संक्रांति, और घोघा।
फुलफुल माई दाल दे चौंल दे!
फूल देई-छम्मा देई, दैंणि द्वार- भर भकार,
यौ देळी कैं बार-बार नमस्कार।
फूलदेई -फूलदेई -फूल संग्रान्द
सुफल करी नयो साल तुमको श्रीभगवान
रंगीला सजीला फूल फूल ऐगी, डाल़ा बोटाल़ा हर्या ह्व़ेगीं
पौन पन्छ , दौड़ी गेन, डाल्युं फूल हंसदा ऐन ,
तुमारा भण्डार भर्यान, अन्न धन बरकत ह्वेन
औंद राउ ऋतू मॉस , होंद राउ सबकू संगरांद
बच्यां रौला तुम हम त फिर होली फूल संगरांद
फूलदेई -फूलदेई -फूल संग्रान्द
फुलफुल माई दाल दे चौंल दे!
कुछ स्थानों पर केवल संक्रांति के दिन, कुछ जगह 8 दिन, कुछ जगह पूरे महीने यह उत्सव मनाया जाता हैं। आखिरी दिन सब लोग मिलकर सामूहिक रूप से खाना बनाते हैं और घोघा देवता को भोग लगाने के बाद प्रसाद वितरित किया जाता हैं।
फ्योंली का संबंध –
इस लोकपर्व का संबंध सीधे तौर पर पीले फ्योंली के फूलों के साथ भी माना जाता है। पौराणिक लोककथाओं के अनुसार फ्योंली एक गरीब परिवार की कन्या थी। एक बार एक राजकुमार को जंगल में शिकार खेलते देर हो गई, तो उन्होंने पास के ही एक गांव में शरण ले ली। जब वहां राजकुमार ने सुंदर फ्योंली को देखा तो वे उसके रूप पर मोहित हो गए और फ्योंली के माता पिता के समक्ष उससे विवाह का प्रस्ताव रखा। विवाह पश्चात फ्योंली राजमहल में आ गई मगर उसका मन उसके गांव में ही लगा रहता। वह धीरे धीरे मायके की याद में कमजोर होती गई। तब उसके निवेदन पर राजकुमार ने उसे कुछ दिन के लिए वापस भेज दिया। गांव पहुंचकर उसे लगा कि उसे वहां फिर वापस जाना पड़ेगा यह सोच सोचकर वह मरणासन्न स्थिति में पहुंच गई। जब राजकुमार के पास यह खबर पहुंची तो उन्होंने वहां आकर उसकी अंतिम इच्छा पूछी तब फ्योंली ने कहा कि उसे गांव की किसी मुंडेर की मिट्टी में समाहित किया जाए।
कहते है जहां उसे दफनाया गया वहां कुछ दिनों बाद एक सुंदर फूल खिला जिसे फ्योंली नाम दिया गया जिसकी याद में यह त्योहार मनाया जाता है। फ्योंली को प्रेम का भी प्रतीक माना गया है।
वर्तमान स्वरूप
पहाड़ो से तेजी से होते पलायन के चलते यह बाल पर्व लुप्त होता जा रहा हैं। आज इस पर्व को मनाने के लिए गांव में बच्चे नहीं है, बेहतर भविष्य की तलाश में ये भावी पीढ़ी आज अनजान है अपने ही लोकपर्व, यहां की माटी, यहां लोककथाओं से।
अगर इन लोकपरंपराओ को जीवित रखना है तो हमें आगे आकर सिखाना होगा बालपन में ही प्रेम से परिपूर्ण इन पर्वों के बारे में। आज की जरूरत हैं पहाड़ के त्योहार, विधाओं को जीवित करने के लिए पहाड़ो सा तड़पता हृदय। यह पर्व संदेश देता हैं कि प्रकृति की उस दिव्य शक्ति के बिना कोई त्योहार, रंग, उमंग , कल्पना संभव ही नहीं हैं।
अंत में आप सभी को फूलदेई की हार्दिक शुभकामनाएं। आप इस लोकपर्व को जहाँ कहीं भी रहेंगे हमेशा याद रखेंगे और आने वाली पीढ़ियों को भी इससे अवगत कराएंगे।
By Ashmita Badoni |