
बीते दिनों उत्तराखंड के जंगल अपने सोलह साल के सबसे बदतर हालत में हैं, २५२१ हेक्टेयर जंगल आज तक आग की चपेट में ख़त्म हो चुके हैं, जहां उत्तराखंड ग्रीन बोनस लेने को लेकर कागज़ी कारवाही कर रहा है, वही राज्य की हरित सम्पति और वन्य जीव सम्पदा को आग ने ख़ाक कर दिया है | यह बात नहीं के यह परेशानी इस साल ही आग के रूप में आयी है, २०१६ की जंगलो की आग के बाद प्रशाशन ने न कोई सुध ली न ही कोई तकनिकी कदम उठाये| जंगली आग रोकने की योजनाओ को २०१६ की घटना से बीते तीन साल तक टाला जाता रहा, कभी ड्रोन से या कभी हेलीकाप्टर पानी डालने की योजना दिखाकर सिर्फ कागज़ो पे आग में काबू पाया गया है | पर्यावरण दिवस पे कई पर्यावरणविद अपने घर पर ए.सी में बैठकर विश्व पर्यावरण पर चिंतन करे रहे थे वही, हिमालय राज्य की सुदूर जंगलो में वन्य सम्पदा ख़ाक हो रही थी | उत्तराखंड एक आपदा ग्रस्त राज्य है, जहाँ हर मौसम में कोई न कोई परेशानी जनता झेलती रहती है | गर्मियों में जंगल की आग, बारिश में भूस्खलन और बाढ़ | ऐसे स्तिथि में पर्यावरण संतुलन हिमालय राज्यों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है | एक छोर पर चार धाम मार्ग के आल वेदर रोड के लिए जंगल के जंगल काट दिए गए, वही बांधो की परियोजनाओं को जनता की सुने बगैर अनुमति दे दी गयी | दरअसल यह चक्र पश्चयातिक अर्थशास्त्र के जीडीपी नाम के जंजाल से शुरू हुआ है, और भ्रष्ट तंत्र इसकी पकड़ हमारे समाज में बनाते जा रहा है, जो विषय ही ऊर्जा के दोहन से चलता है उससे सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में हथियार नहीं बनाया जा सकता | कमी किसी नेता या अफसर के पड़े लिखे न होने या होने की नहीं है, ये कमी तंत्र की विवेक से काम न लेने की है |

सही गलत में फर्क न कर पाने की क्षमता और राजनितिक इच्छाशक्ति न होने की है, जब तक समाज की रिवायत किसी से काम निकलने और अपना उल्लू सीधा करने की रहेगी तबतक सतत विकास लक्ष्यों के ” सामाजिक न्याय ” को पाना असंभव है | सामाजिक न्याय में पेड़ो, नदियों, जंगली जीवो को भी वही हक़ होने की जरुरत है जितनी की एक मनुष्य को | बीते दिन हरयाणा हाई कोर्ट के एक ऐसे ही आर्डर ने देश को अचंभित किया, फैसले में वन्य हुए पालतू जीवों को ” क़ानूनी व्यक्ति या सत्ता” बताया गया | इस फैसले का गूढ़ अभी भी काफी बुद्धिजीव कर रहे हैं, पर इस न्याय के मामले में हर जीव को वही अधिकार है जो एक भारत में रहने वाले नागरिक को | २०१७ में नैनीताल हाई कोर्ट के गंगा पर दिए फैसले ने भी काफी सुर्खियां बटोरी , जिसमे कहा गया के ” गंगा एक जीवित तंत्र है”,इस फैसले से गंगा को खनिज की लिए उपयोग नहीं लाया जा सकता | ऐसी ही व्यवस्था राज्य के जंगलों के लिए भी बनानी चाहिए, जिससे उत्तराखंड के हरे खनिज को बचाया जा सके, लोग आज हिमालय खनिजों के लिए अपना घर, खेत बेचने पे उतारू है, तो यह समझना के लोग पर्यावरण को ध्यान में रखेंगे, ये गलतफेहमी है |यह चिपको आंदोलन का ज़माना नहीं रहा, पहाड़ी आज के समय दिल्ली, देहरादून आना चाहता है, जहा उसे सुविधाएं मिले, इसका पैसा पाने के लिए भू- माफियाओ को ज़मीने खनिज दोहन करने के सिवाय उसके पास कोई नहीं है |